उदयपुर से 112 और कुम्भलगढ़ से 32 कि.मी. की दूरी के लिए मेवाड़ का जाना – माना तीर्थ स्थल हैं, जहां चारभुजा जी की बड़ी ही पौराणिक चमत्कारी प्रतिमा हैं | मेवाड़ के चार प्रमुख स्थल केसरियाजी, कैलाशपुरीजी और नाथद्वारा के साथ गडबोर की गिनती भी हैं |
इस चमत्कारी प्रतिमा के संबंध में जनश्रुति हैं कि श्री कृष्ण भगवान को उद्धव को हिमाचल में तपस्या कर सदगति प्राप्त करने के आदेश देते हुए स्वयं गौलोक जाने की इच्छा जाहिर की तब उद्धव ने कहा की मेरा तो उद्धार हो जाएगा, परन्तु आपके परम भक्त पाण्डव और सुदामा नाम के गौप आपके गौलोक पधारने की खबर सुनकर प्राण त्याग देंगे | ऐसे में श्री कृष्ण ने विश्वकर्मा से स्वयं की एवं बलराम महाराज की दो मूर्तिया बनवाई, जिसे राजा इन्द्र को देकर कहा की ये मूर्तिया पाण्डव युधिष्ठिर व सुदामा के नाम के गौप को सुपूर्द कर उनसे कहना की ये दोनों मूर्तिया मेरी हैं और मै ही इनमे हूँ | प्रेम से मूर्तियों का पूजन करते रहे, कलयुग में मेरे दर्शन व पूजा करते रहने से मैं मनुष्यों की इच्छा पूर्ण करूँगा और सुदामा का वंश बढ़ाऊंगा |
इन्द्र ने आदेशानुसार श्री कृष्ण की मूर्ति पाण्डव युधिष्ठिर को और बलदेव भगवान की मूर्ति सुदामा गौप को दे दी | पाण्डव और सुदामा दोनों उन मूर्तियों की पूजा करने लगे | वर्तमान में गडबोर में चारभुजाजी के नाम से स्थित प्रतिमा पाण्डवो द्वारा पूजी जाने वाली मूर्ति श्री सत्यनारायण के नाम से सेवन्त्री गॉव में स्थित हैं | किदवंती है कि जब पाण्डव जाने लगे तो श्री कृष्ण की मूर्ति को पानी में छिपा गए ताकि कोई इसकी पवित्रता को खंडित नहीं कर सके |

कई वर्षो बाद जब राजपूत बोराना के प्रमुख गंगदेव, जतकालदेव और कालदेव ने मिलकर गडबोर की स्थापना की तब गंगदेव को एक रात सपना दिखा कि पानी में से चारभुजा नाथ की प्रतिमा निकलकर मंदिर में स्थापित कर दी जाये | गंगदेव ने यही किया | यह भी सुनने को मिलता है की मुसलमानो के अत्याचारों से बचने के लिए बोराना राजपूतों ने इस प्रतिमा को जल प्रवेश करा दिया, जब नाथ गुंसाइयों द्वारा इसे निकाल कर पूजा के लिए प्रतिष्टिथ कर दिया गया | यहाँ छोटे-मोटे करीब सवा सौ युद्ध हुए जिसमे कई बार चारभुजा की मूर्ति को बचने के लिए जनमग्न किया गया |
ऐसी स्थिति में मेवाड़ राजवंश ने बार-बार इस प्रतिमा की सुध ली और इसे बचाने के लिए सब कुछ दाव पर लगा दिया | महाराणा संग्रामसिह, जवानसिह, स्वरुपसिह ने तो मंदिर की सुव्यवस्था के साथ-साथ जागीरे भी प्रदान की | यहाँ वर्ष में दो बार होली एवं देवझूलनी एकादश पर मेले भरते है, मंदिर के पास ही गोमती नदी बहती है|

कहते है एक बार मेवाड़ महाराणा उदयपुर से दर्शन के लिए पधारे लेकिन देर हो जाने से पुजारी देवा ने भगवान चारभुजा का शयन करा दिया और हमेशा महाराणा को देने वाली भगवान की माला खुद पहन ली | किन्तु इसी बीच महाराणा वहा आ गए | माला में सफ़ेद बाल देखकर पुजारी से पूछा- क्या भगवान बूढ़े होने लगे है ? पुजारी ने घबराते हुए हां कर दी | महाराणा ने जांच के आदेश दे दिया | दुसरे दिन भगवान के केशों में से एक केश सफ़ेद दिखाई दिया | ऊपर से चिपकाया गया केश मानकर जब उसे उखाड़ा गया तो श्री विग्रहजी से रक्त की बूँद निकली | इस तरह भक्त की लाज भगवान में रख ली | उसी रात महाराणा को स्वपन हुआ की भविष्य में कोई महाराणा वहा दर्शनार्थ नहीं पहुचे| तब से इस परंपरा का निर्वाह हो रहा है | हां , महाराणा बनने से पूर्व युवराज की हैसियत से अवश्य इस स्थल पर युवराज पधारकर दर्शन करने के पश्चात् महाराणा की पदवी ली जाती है |